धमदाहा की नवविवाहिताओं ने की व्रत की शुरुआत, पति की लंबी उम्र व सुखद दांपत्य जीवन की कामना
धमदाहा (पूर्णिया)
संतोष कुमार
पूर्णिया जिले के धमदाहा अनुमंडल सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में मंगलवार से मिथिलांचल का पारंपरिक व्रत मधुश्रावणी श्रद्धा व भक्ति के साथ आरंभ हो गया। यह पर्व विशेष रूप से नवविवाहिताओं द्वारा पति की लंबी उम्र, पारिवारिक सुख-शांति और समर्पित वैवाहिक जीवन की कामना हेतु मनाया जाता है। सावन मास की कृष्ण पक्ष पंचमी से आरंभ होकर यह व्रत शुक्ल पक्ष की तृतीया तक यानी 14 दिनों तक चलता है।
संस्कृति से जुड़ी गहरी आस्था
मधुश्रावणी व्रत केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि मिथिलांचल की नारी परंपरा में आस्था, स्नेह और विश्वास का उत्सव है। धमदाहा सहित पूर्णिया जिले में यह व्रत मिथिला की विरासत के संरक्षण का प्रतीक भी बन चुका है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी माताएं अपनी बेटियों को सौंपती आई हैं।
व्रत की पौराणिक मान्यता
इस पर्व को लेकर पुराणों में उल्लेख है कि देवी पार्वती ने सबसे पहले यह व्रत भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए किया था। उनकी तपस्या और समर्पण से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें स्वीकार किया। तभी से यह व्रत नवविवाहिताओं के लिए एक आदर्श परंपरा बन गई, जिसमें हर जन्म में शिव जैसे पति की प्राप्ति और वैवाहिक जीवन की अक्षुण्णता की कामना की जाती है।
व्रत की प्रमुख विधि व विशेषताएं
धमदाहा क्षेत्र की नवविवाहिताएं व्रत की शुरुआत के साथ ही विशेष नियमों का पालन करती हैं:
प्रतिदिन गौरी-शंकर की पूजा और नाग-नागिन की आराधना की जाती है।
महिलाएं नमक और मसालों का त्याग करती हैं और केवल एक समय सात्विक भोजन करती हैं।
प्रतिदिन मधुर व्रत कथा का श्रवण किया जाता है, जिसे व्रत कराने वाली पुरExperienced महिलाएं या सासु मां द्वारा सुनाया जाता है।
लोक गीत, पारंपरिक पकवान, और रंगोली से वातावरण उत्सवमय हो जाता है।
धमदाहा में उत्सवी माहौल
धमदाहा क्षेत्र के कई गांवों में मंगलवार सुबह से ही नवविवाहिताओं ने नए वस्त्र पहन कर पारंपरिक तरीके से व्रत की शुरुआत की। घरों में पूजा के लिए विशेष सजावट की गई। ग्रामीण महिलाएं सामूहिक रूप से पूजा में शामिल हुईं और आपस में मधुश्रावणी गीत गाते हुए उत्सव का आनंद लिया।
व्रत का समापन – प्रेम और विश्वास का प्रतीक
व्रत के अंतिम दिन, नवविवाहिता महिलाएं अपने पति के साथ मिलकर विशेष पूजा करती हैं। पान के पत्ते से पति-पत्नी एक-दूसरे की आंखें ढँकते हैं, जो एक-दूसरे के प्रति अंध विश्वास, स्नेह और समर्पण का प्रतीक है। इसके बाद वे एक-दूसरे को मिठाई खिलाकर इस 14 दिवसीय साधना का समापन करती हैं।
मिथिलांचल की आत्मा है मधुश्रावणी
मधुश्रावणी न केवल एक धार्मिक पर्व है, बल्कि यह मिथिलांचल की सामाजिक संरचना में स्त्री की भूमिका को शक्ति और सम्मान प्रदान करता है। पूर्णिया जैसे सीमावर्ती जिलों में भी यह पर्व अब पुनः जीवंत हो रहा है, जो संस्कृति और परंपरा के पुनरुत्थान का संकेत है।
स्थानीय महिलाओं की प्रतिक्रिया
धमदाहा की नवविवाहिता रेणु देवी ने बताया –
“मधुश्रावणी हमारी पहली पूजा है जिसमें हम अपने पति के लिए व्रत रखते हैं। यह एक नया अनुभव है, जिसमें हमें पारंपरिक विधियों को सीखने का अवसर भी मिलता है।”
वहीं सावित्री देवी, जिन्होंने ने वर्षों से मधुश्रावणी कथा का आयोजन करवा रही हैं, कहती हैं –
“इस व्रत से स्त्री जीवन में संयम, प्रेम और कर्तव्य बोध आता है। यही हमारी परंपरा की पहचान है।”
परंपरा और भविष्य का संगम
पूर्णिया जिले के ग्रामीण अंचलों में मधुश्रावणी व्रत का यह आयोजन यह सिद्ध करता है कि भले ही समय बदला हो, पर मिथिला की सांस्कृतिक परंपराएं आज भी जीवित और प्रासंगिक हैं। यह पर्व नारी सशक्तिकरण के उस रूप को दर्शाता है, जिसमें श्रद्धा, प्रेम और आत्मबल तीनों समाहित हैं।